बहुत जरूरी हो गया है यह कहना
कि भुखमरी से हुई मौतों पर
बहस करने की कोई जरूरत नहीं है,
कोई जरूरत नहीं है
आजादी के लाड़लों की वर्षगाँठों पर
जलसा फैलाने की,
हर महीने दो-चार शहीदों की वर्षगाँठें
उपस्थित ही हो जाती हैं
कहाँ तक मनेगा जलसा?
सच के तीखे लाल तपे हुए तवे पर
छन्न-छन्न बोल रही
बूँदों के जल-सा!
इतना ही अल्पजीवी तो होता है
शहादत की वर्षगाँठ का कोई भी मौका।
इस ठोकर से उस झिड़की
इस तमाचे से उस गाली तक
अपनी जिंदगी का इंजन दौड़ाते बच्चे,
इतवार के मेले में
खुश हो लेते जो कभी-कभार
और ये मजबूरी में चल रहा देह-व्यापार
बिजनेस की दुर्गंध, मुनाफे की मार
नशे को मजबूर बिगड़ैल रईसजादे
बहुत-कुछ बटोरने के ‘ऊँचे’ इरादे...
एक की खाई, पड़ोसी की ऊँचाई
किस सब्सिडी से पूरी होगी
भला ये भरपाई?
इसलिए
न तो जरूरत है सब्सिडी की
न उस पर बहस की...
इन सब चीजों को पुरानी किंवदंतियों
और लातीनी मिथकों के साथ
बंद करके
फेंक देना चाहिए
एक स्थायी कूड़ेदान में,
सुगबुगाहट भी न हो सके जहाँ
दुबारा कभी।
और बाहर से लगे -
सवाल हल हो गए सारे।
बहुत जरूरी हो गया है यह।